धर्मांतरण के प्रति गांधी जी का क्या दृष्टिकोण था, इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा ष्माय एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथष् में किया है। गांधी अपने विद्यालयीय जीवन के दिनों की एक घटना का अपनी आत्मकथा में उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि “उन्हीं दिनों मैंने सुना कि एक प्रसिद्ध हिन्दू सज्जन अपना धर्म बदल कर ईसाई बन गये हैं। शहर में चर्चा थी कि बपतिस्मा लेते समय उन्हें गोमांस खाना पड़ा और शराब पीनी पड़ी, अपनी वेशभूषा भी बदलनी पड़ी तथा वे तब से हैट लगाने और यूरोपीय वेशभूषा धारण करने लगे। मैंने सोचा जो धर्म किसी को गोमांस खाने शराब पीने और पहनावा बदलने के लिए बाध्य करे वह तो धर्म कहे जाने योग्य नहीं है। मैंने यह भी सुना ईसाई धर्मान्तरित हिंदू अपने पूर्वजों के धर्म को उनके रहन सहन को तथा अपने पूर्वजों के देश को ही गालियां देने लगे हैं। इस सबसे मुझसे ईसाईयत के प्रति अत्यंत नापसंदगी पैदा हो गई। ” ( एन आटोबायोग्राफी आर द स्टोरी आफ माय एक्सपेरिमेण्ट विद ट्रूथ, पृष्ठ -3-4 नवजीवन, अहमदाबाद) गांधी जी का यह भी स्पष्ट मत था कि ईसाई मिशनरियों का मूल लक्ष्य भारत की संस्कृति के सभी केन्द्रों को समाप्त कर भारत का यूरोपीयकरण करना है। उनका कहना था कि भारत में आम तौर पर ईसाइयत का अर्थ है भारतीयों को राष्ट्रवादिता से रहित बनाना और उसका यूरोपीयकरण करना। गांधीजी ने धर्मांतरण के लिए ईसाई मिशनरियों के प्रयासों और उनके सिद्धांतों का मुखर विरोध किया। गांधी जी मिशनरियों को आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण संस्था नहीं मानते थे बल्कि उन्हें कुप्रचारक या प्रोपगेण्डिस्ट मानते थे। गांधी जी ने स्वयं लिखा कि “ दूसरों के हृदय को केवल आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति ही प्रभावित कर सकता है। जबकि अधिकांश मिशनरी वाकपटु होते हैं, आध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति नहीं।“ (संपूर्ण गांधी वांङमय, खंड-36,
पृष्ठ -147)