नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विस्थापित कश्मीरी सरकारी कर्मचारी रिटायरमेंट के बाद तीन साल से अधिक समय तक सरकारी आवास अपने पास नहीं रख सकते। सामाजिक या आर्थिक मानदंडों के आधार पर उन्हें अनिश्चित काल तक सरकारी आवास में रहने की अनुमति देने का कोई औचित्य नहीं हो सकता।
जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने कहा कि इस आशय का आफिस मेमोरेंडम पूरी तरह मनमाना और भेदभावपूर्ण होने के साथ-साथ असंवैधानिक है। शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकारी आवास सेवारत अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए होता है और सरकारी कर्मचारी या उनका जीवनसाथी जीवनभर उसमें नहीं रह सकता। पीठ ने कहा कि अगर कश्मीरी प्रवासियों को सेवानिवृत्ति की तारीख से तीन साल की अवधि के लिए सरकारी आवास की अनुमति दी जाती है तो हम इसे उचित मानते है क्योंकि यह अवधि वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए दी जा रही है।
आदेश में कहा गया है कि सरकारी घर/फ्लैट सरकारी कर्मचारियों की सेवा के लिए हैं। सेवानिवृत्ति के बाद, कश्मीरी प्रवासियों सहित सरकारी कर्मचारियों को मासिक पेंशन सहित पेंशनभोगी लाभ दिए जाते हैं। कश्मीरी प्रवासियों को अनिश्चित काल तक सरकारी आवास में रहने की अनुमति देने के लिए सामाजिक या आर्थिक मानदंडों के आधार पर कोई औचित्य नहीं हो सकता है।
इससे पहले इस साल अगस्त में पीठ ने कहा था कि आश्रय का अधिकार का मतलब सरकारी आवास का अधिकार नहीं है। इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया था जिसमें उसने खुफिया ब्यूरो के एक सेवानिवृत्त अधिकारी ओंकार नाथ धर को सरकारी आवास अपने पास रखने की इजाजत दे दी थी। कोर्ट ने कहा था कि सरकारी आवास सेवारत अधिकारियों के लिए है न कि सेवानिवृत्त लोगों के लिए परोपकार और उदारता के वितरण के लिए। सेवानिवृत्ति के बाद धर ने सरकार से अनुरोध किया था कि उन्हें उन्हें आवंटित घर को मामूली लाइसेंस शुल्क पर बनाए रखने की अनुमति दी जाए, जब तक कि जम्मू-कश्मीर में मौजूदा हालात में सुधार न हो जाए और सरकार उनके लिए उनके मूल स्थान पर वापस जाना संभव न कर दे। हालांकि, उनके खिलाफ सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जा हटाना) अधिनियम, 1971 के तहत कार्यवाही शुरू की गई थी।