देहरादून। संसार अकालग्रस्त है। अकाल सिर्फ अन्न का, भोजन का ही मात्र नही हुआ करता अपितु ईश्वर की दिव्य महिमा को श्रवण करने की भावना का अकाल, प्रभु को तात्विक रूप से जानने की इच्छा का अकाल, पूर्ण गुरू की शास्त्र-सम्मत खोज करने की तीव्र उत्कंठा का अकाल, भगवान से सिर्फ भगवान को मांग लेने कीे प्रेम पूर्ण मांग का अकाल, अपने जन्म- मरण से मुक्त हो जाने के भाव का अकाल। यह अकाल अन्न के, भोजन के अकाल से भी कहीं बड़े और विकराल अकाल हैं क्योंकि जन्मों-जन्मोें के कुचक्रों में फंसकर निरन्तर आवागमन में रत रहना और अपने मूल से बिछुडकर संसार की माया में उलझे रहकर अनमोल मानव जीवन का नाश कर लेना, क्या इससे विकट कोई अन्य अकाल हो सकता है क्या? सृष्टि का सिरमौर कहे जाने वाले मनुष्य की यह त्रासदी नहीं तो और क्या है कि ईश्वर को छोड़ यह मानव अपना सम्पूर्ण जीवन ईश्वर की निरर्थक माया की गुलामी करते हुए ही नष्ट कर बैठता है। संसारिक वस्तुआंे मंे कथित सुख की तलाश करता हुआ यह इंसान शाश्वत सुख और ईश्वरीय परमानन्द से सर्वथा वंचित रहते हुए जीवन की बाज़ी हारकर संसार से कूच कर जाता है। सारे सुख-साधन, सारी उपलब्धियां और समस्त संसाधन बिना परमात्मा को पाए ठीक इस प्रकार से हुआ करते हैं जिस प्रकार से अनेक सुस्वादु व्यजंन तैयार किये जायें, छप्पन प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाये जाये लेकिन! उनमेें नमक का सर्वथा अभाव हो, तो भला उन व्यंजनों का स्वाद आ पाऐगा? परमात्मा अगर जीवन में विद्यमान हैं तो उनकी बनायी समस्त वस्तुओं का कोई मोल है। भक्त और भगवान दोनांे का सम्बन्ध बड़ा ही गहरा और उजला सम्बन्ध हुआ करता है। भक्त हर हाल में, प्रत्येक परिस्थिति में अपने प्रभु के साथ ठीक इस प्रकार से जुड़ा रहता है जैसे एक वृक्ष अपनी जड़ों की गहराई में स्वयं को जोड़े रखता हैै। हैरानी की बात है कि आज संसार पर यदि गहन दृष्टिपात करंे तो दृष्टिगोचर होता है कि अधिकंाश मानव अनुकूल स्थितियों में तो भक्त बने रहते हैं लेकिन ज़रा सी विपरीत परिस्थितियां आई नहीं कि विभक्त हो जाते हैं। एैसा इसलिए हो जाता है क्यांेकि भक्त अभी बने नहीं, भगवान को अभी जाना नहीं। भगवान को मात्र मानने से ही काम नहीं चलने वाला। भगवान को जनाने वाला कोई पूर्ण गुरू जब तक जीवन में नहीं आ जाता तब तक भक्त और विभक्त का यह खेल यथावत चलता ही रहेगा। शास्त्रों के कथनानुसार जब परम गुरू मिलेंगें तब वे सनातन पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ के परमोज्जवल आलोक में जीव के भीतर ही परमात्मा का सार्वभौमिक तत्वरूप प्रकट कर देंगे। यहीं से मनुष्य की शाश्वत परम भक्ति का शुभारम्भ हो जाता है। ईश्वर को पूर्णरूपेण जानने की दिव्य प्रक्रिया यहीं से आरम्भ होती है। सदगुरू प्रदत्त ब्रह्मज्ञान वह शास्त्रोक्त पूर्ण ज्ञान है जो मनुष्य जीवन की समस्त उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने के साथ-साथ जीवन के लक्ष्य को पूर्णता प्रदान करता है, पूर्ण गुरू की प्राप्ति करना समस्त मानव समाज़ का ‘जन्मसिद्ध’ अधिकार है।
महापुरूषों के इन महान सदविचारों का दिव्य प्रवाह आज निरंजनपुर, देहरादून स्थित दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के आश्रम सभागार में प्रवाहित हुआ। अवसर था संस्थान द्वारा प्रत्येक रविवार को आयोजित किये जाने वाले साप्ताहिक सत्संग- प्रवचनों तथा मधुर भजन -सर्कीतन के कार्यक्रम का। सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी ने इन विचारों को संगत के समक्ष उजागर किया। अपने उदबोधन में साध्वी जी ने आगे कहा कि सदगुरू के चरणों की परम भक्ति जिस शिष्य के जीवन में आ जाती है तो एैसे अनन्य शिष्य को गुरू कृपा से सहज़ ही साक्षात नारायण की प्राप्ति हो जाती है। समस्त शास्त्र- ग्रन्थ और तमाम आध्यात्मिक रचनाएंे जिन उपलब्धियों का गुणगान कर पूर्ण गुरू की महिमा गाया करते हैं यह सब उपलब्धियां एकनिष्ठ शिष्य के जीवन में उसे सरलता से प्राप्त हो जाती हैं। अपने सदगुरू पर ही निर्भर रहने वाले दासभाव से भरे शिष्य को संसार की असम्भव उपलब्धी भी गुरू द्वारा प्रदान कर दी जाती है। गुरू के लिए तीनों लोकों में कुछ भी ‘असम्भव’ नहीं है। सर्व समर्थ गुरू किसी के भी प्रति जवाबदेह नहीं हुआ करते, जो भी होता है वह परम गुरू के प्रति ही जवाब देह हुआ करता है।
भारती जी ने बताया कि संसार के अनेकोें विचारों में ईश्वरीय विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इन विचारों के आविर्भाव के लिए ‘सत्संग’ ही माध्यम है। सत्संग के अनमोल विचारों में मानव की दिशा और दशा दोनों को बदल देने की अप्रतिम सामर्थ्य होती है। आवश्यकता केवल इतनी है कि महापुरूषों के इन विचारों को मात्र सुननें तक ही सीमित न रखते हुए इनका चिन्तन-मनन और अमल भी करते जाना चाहिए। आत्मा का ज्ञान सर्वाेपरि ज्ञान है। आत्मा को जानना अर्थात! परमात्मा को जान लेना। इन्हें जान लेने के बाद फिर कुछ भी जानना शेष नही रहता है। आत्मा का सम्पूर्ण ज्ञान पूर्ण गुरू के ब्रह्मज्ञान में ही निहित है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष है, यह ज्ञान अनन्य है, यह ज्ञान प्रयोगात्मक है और सम्पूर्ण परिवर्तन का धोतक है। साध्वी जी ने स्वामी विवेकानन्द जी और उनके गुरू ठाकुर रामकृष्ण ‘परमहंस’ जी का प्रेरक दृष्टान्त भी भक्तजनों के समक्ष रेंखाकिंत किया। उन्होनें कहा कि श्री हरि नारायण का जाप मनुष्य की स्वंासों में निर्बाध गति से चल रहा है। आवश्यकता है एैसे परम सदगुरूदेव की जो कि इस चल रहे पावन नाम को जीव की स्वांसों में प्रकट कर दें। फिर! आठों प्रहर, पल- प्रति- पल ईश्वर का आदिनाम भीतर सुनाई देता है और इस अनवरत चल रहे सुमिरन का जादू एैसा छाता है कि परमात्मा भक्त के प्रेमपाश में बंधता चला जाता है। इसलिए! प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि जीवन की श्वंासें रहते-रहते खोज की जाए पूर्ण सदगुरू की और उनसे प्राप्त कर लिया जाए उनका पावन ब्रह्मज्ञान। यही है शाश्वत भक्ति की प्राप्ति का सुगम और शास्त्र सम्मत दिव्य मार्ग। प्रसाद का वितरण करते हुए साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।