चित्रशिला घाट में महाराज जी को भू समाधि के पश्चात षोडशी संस्कार सम्पन्न हुआ। मैंने महाराज जी से कभी पूछे गए प्रश्नों और उनके उत्तरों को यथा स्मरणशक्ति समेटकर एक लघु पुस्तक की 500 प्रतियां “मेरे सद्गुरूदेव” नाम से प्रकाशित कर उसी दिन वितरित की। थोड़ा सुख अन्तर्मन को मिला कि इसी माध्यम से महाराज जी की चर्चा होते रहेगी। दो प्रतियां मेरे संग्रह में शेष हैं। शिष्य का दायित्व है कि अपने गुरूदेव की महिमा गाते रहे और संसार भर में उनकी शिक्षाओं का प्रसार करे, यही मनोरथ मेरा पुस्तक छापते समय रहा। महाराज जी के देह संवरण के पश्चात कुछ दिनों तक चित्त विषाद में घिरा रहा। एक दिन हमारे शहर में पूज्यपाद निवृत शंकराचार्य भानूपीठाधीश्वर पद्म विभूषित श्रीमन् स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज, संस्थापक भारत माता मंदिर, हरिद्वार जी का आगमन हुआ। उनके एक भक्त के निवास में एकांत में भेंट करने का सौभाग्य मिला। मिलते ही उन्होंने विषाद का कारण पूछा, तब मैंने उन्हें अपने महाराज जी के देह संवरण के विषय में बताया। थोड़ी देर वे चुप रहे, पश्चात भगवान के बाल स्वरूप की सेवा करने का निर्देश उन्होंने दिया।
घर आकर उनके निर्देश का चिंतन किया तो मेरा मन अपने दीक्षा गुरूदेव अनंतानंत श्री विभूषित हथियाराम पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर नैष्ठिक ब्रह्मचारी परमश्रेष्ठ पावाहारी श्रीमन् स्वामी बालकृष्ण यति जी महाराज जी के पास जाने को लालायित हो गया। पूज्य गुरूदेव उन दिनों हथियाराम मठ के मंदिर जागेश्वर मठ, वाराणसी में वास कर रहे थे। वहीं उनके समीप बैठकर बस चुपचाप उन्हें निहारता रहता। कभी वे ही करुणा करते और वेद-पुराण, महाभारत आदि पर कुछ बोलते या श्रीमद्भगवद्गीता के किसी मन्त्र की व्याख्या करते। वृद्ध कृशकाय देह महाराज जी की, क्षीण सी आवाज और मेरे कान पकड़कर अपने मुंह के पास तक खींचना… और उत्सुक बालक की तरह वेद-वेदांत पर बोलते चले जाना। लगता था जैसे किसी बालक को कोई कविता, कहानी स्मरण हो जाय तो वो किसी प्रिय को सुनाने को उत्सुक हो जाता है, वैसे ही एक श्रोता मिल गया था महाराज जी को। मुझे देखकर प्रसन्न हो जाते थे महाराज जी। शेष अनेक शिष्य महामंडलेश्वर थे या किसी पीठ के महंत थे अथवा बड़े-बड़े व्यापारी, शिक्षाविद्, प्रोफेसर, डॉक्टर या धर्माचार्य। पर गुरूदेव महाराज जी की आयु की 93-94 वर्ष की अवस्था में उन्हें सुनने का धैर्य किसी के पास नहीं था। बैठते सभी थे, श्रद्धा, सम्मान, प्रेम से सभी भरे भी हुए थे किंतु प्रायः हाल-चाल पूछने तक ही शब्दों का आदान-प्रदान होता था। मेरा सौभाग्य था कि गुरुदेव मुझे देना चाहते थे भक्ति, ज्ञान, कर्म की एकरूपता या स्वयं तीनों की तुलना करते हुए भक्ति को श्रेष्ठ साधन बताकर भक्ति की प्रतिष्ठा करते थे। आनंद आ रहा था उन दिनों, मैं अपने सौभाग्य को लेकर साक्षात शिवलोक में गमन कर रहा था, पर नियति को मेरा सुख कभी सहन नहीं हुआ, आज भी नियति मेरे सुख के क्षणों को सीमित किये रखती है। नजर लग गई मैनेजर महामंडलेश्वर की (जिसका जिक्र पूर्व संस्मरण लेख में कर चुका हूँ)। उन्हें महाराज जी से मेरा नैकट्य सहन नहीं हुआ, कुछ पूर्वांचल/बिहार के पंडितों की वक्र दृष्टि भी मेरे सुख को भेदने लगी। महाराज जी के दर्शन और उनके समीप बैठने में बाधा खड़ी कर दी गई। बहुत अपमान, पीड़ा, शोक को लिए उनकी कुटिया के द्वार पर बैठा रहता। दीवार के उस पार से उनके मौन को सुनने का प्रयास करता रहता। केवल प्रातःकाल महाराज जी की आरती के समय ही सभी लोगों के साथ दर्शन होते, कई बार आरती का थाल भी मुझ तक नहीं पहुंचने दिया जाता… खैर तब भी सुख था कि थोड़ी देर ही सही अपने भगवान का दर्शन सौभाग्य तो मिल रहा है। एक दिन महाराज जी ने आरती के बाद मुझे वापस घर जाने का आदेश दे दिया, ये कहते हुए कि कभी वहीं आकर दर्शन करना, मैं हल्द्वानी आने वाला हूँ। जिस समय गुरूदेव ने ये आदेश दिया उस समय वो महामंडलेश्वर जो मैनेजर जैसे ही थे के मुखमंडल में कुटिल मुस्कान बिखर गई। मुझे समझ आ गया कि गुरुदेव महाराज ने मुझे लौटने का आदेश क्यों दिया है। बाद में मुझे समझ आया कि वे नित्य प्रति के अपमान से मुझे बचा रहे थे। आदेश मिलते ही हृदय धप्प से जैसे बैठ गया, सांसों की गति अनियंत्रित हो गई। नेत्रों से अश्रुधार फूट पड़ी। तो भी अपने को नियन्त्रित कर महाराज जी को प्रणाम कर वहाँ से बाहर निकल आया। दो दिन काशी की गलियों में घूमता रहा। भूखे पेट, अनेक घाटों के किनारे, कभी गंगा जी की लहरें गिनता, कभी नावों की पंक्तियाँ। तीसरे दिन रात्रि में मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों पर बैठकर जलती हुई चिताओं को देखता रहा, तीन-चार चिताएँ जल रही थीं। देर रात्रि में भी दो शव शिवत्व में विलीन होने लाये गए थे। नयी लकड़ियां लगाकर चिताओं की अग्नि को और शक्ति दी गई। कुछ दूरी पर कुछ विदेशी बैठकर वीडियोग्राफी बना रहे थे, चिलम, सिगार, बीड़ी पी रहे थे। काशी दम साधे शांत थी जैसे रात्रि में महासमाधि में डूब गई हो। मणिकर्णिका में उन बीस-पच्चीस विदेशियों के सिवा अब कोई नहीं था। वे भी दम के अप्राकृतिक ध्यान में डूबे हुए थे। पहली बार रात्रि की शांति और श्मशान शांति का एकाकार अनुभव हुआ। अग्नि की लपटों का प्रतिबिंब गंगा जी में पड़ रहा था और अचानक मुझे गंगाजी सीढ़ियाँ चढ़ती अनुभव हुईं। चिताओं तक जल बढ़ता अनुभव हुआ जैसे उन मृतकों की आत्माओं को लेने स्वयं विश्वनाथ महादेव को गंगाजी लिवा लाई हों। अग्नि की शिखाएं जैसे नर्तन करने लगी हों। अग्नि के साथ साथ देवाधिदेव महादेव जैसे नटराज नृत्य कर रहे हों, रुद्र की अनेकों आकृतियाँ और उन आकृतियों से झांकता महादेव का क्षण-क्षण बदलता रूप। मैं मदहोश, सम्मोहित हो गया। लगा जैसे मणिकर्णिका ने जादू-टोना कर दिया हो और चिता की अग्नि में मैं भी नृत्य कर रहा होऊं। मेरे पैर थिरकने लगे, हाथ आकाश की ओर उठ गए हों और महादेव का नृत्य मेरे हृदयाकाश में प्रारम्भ हो गया हो। पूरी देह में हल्का-हल्का कम्पन होने लगा। लगा जैसे चिताग्नि की शिखाओं पर चढ़कर मैं नृत्य करने लगूं। चित्त मुझमें शेष नहीं रहा, बहुत दिनों बाद समाधि का अनुभव हुआ…..। तभी अचानक परियों के दर्शन से लेकर देवताओं के दर्शन से भी कई गुना अधिक विस्मित कर देने वाला दृश्य प्रकट हो गया। थोड़ी ही दूर बैठे विदेशियों के दल में से एक स्त्री जोर से चिल्लाई। मेरी तन्द्रा टूट गई, ठीक वैसा ही अनुभव हुआ जैसे किसी ने ऊंचे पहाड़ से नीचे पटक दिया हो। मैं संभल पाता, उससे पहले ही बड़ी ही तेजी से वो यूरोपियन स्त्री ठीक वैसे ही नाचने लगी जैसे भारत में स्त्रियों के शरीर में मातारानी आ जाती हैं। नाचते नाचते बहुत ही तीव्र गति से वो मेरे पास आई और आते ही मेरे पैर पकड़ लिए। भय से थोड़ा विचलित हो गया था मैं। पैर पकड़ते ही हमारी पहाड़ी भाषा में उस स्त्री ने मुझे हे भोलेनाथ कहकर सम्बोधित किया और मुक्ति देने की बात कही, गिड़गिड़ाने ही लगी थी वो कि मुझे मुक्ति दे दो, मुझे बंधनों से मुक्त कर दो… पुनः वो नाचने लगी, फिर मेरे पैर पकड़ लेती। मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या हो रहा था ये। मुक्ति दे दो गुरू, मुझे मुक्त कर दो स्वामी कहकर वो मेरे पैर पकड़कर नीचे वाली सीढ़ी में बैठ गई। उसके साथ वाले फारनर्स को उसकी भाषा को लेकर आश्चर्य हुआ कि ये कौन सी भाषा है….! तब मैंने उन्हें बताया कि ये हिंदी, पहाड़ी भाषा है। वे विस्मय से बैठ गए समीप ही। थोड़ा साहस बटोरकर मैंने उस स्त्री के सिर पर हाथ रखा और पूछा कि कौन हो तुम? उसने जो बताया वो मुझे आज भी आश्चर्य में डाल देता है कि इनकार्नेशन /पुनर्जन्म होता है पर किसी अन्य देश में, किसी भी संस्कृति में, किसी भी योनि में हो सकता है। उसने कहा- हे भोलेनाथ! मैं पूर्वजन्म में आपकी भक्त थी, किंतु पथभ्रष्ट होकर दैहिक सुख में इतना डूब गई कि आचरण की पवित्रता का ध्यान भी नहीं रखा और न ही मर्यादा ही शेष रही। इसीलिए दंड स्वरूप मुझे विदेशी धरती पर भोग के लिए ही भेज दिया गया। आज स्मृति लौटी है, पश्चाताप और ग्लानि से मेरा कलेजा फट रहा है…. आप दया करो और मुझे मुक्त कर दो। वो रोते जा रही थी, उसके सब साथी भयातुर होकर असहाय खड़े थे और मैं मस्तिष्क से सुन्न हो गया कि क्या करूँ। अचानक जैसे देव लीला ही हुई और यन्त्रचालित सा मैं जलती हुई चिता के पास गया, हाथ जोड़कर महादेव को प्रणाम कर चिता के पास से ही थोड़ी भस्म उठाकर उस स्त्री के मस्तक पर लगाकर जोर से एक हाथ उसकी पीठ पर मारा….… ॐ शिव का उच्चारण किया, वो स्त्री सीढ़ी पर लुढ़क गई। गंगाजी से जल लेकर उस पर छिड़का और मैं दूर बैठ गया। धीरे-धीरे उसे चेतना आई, पूर्ण होश में आने पर उसे कुछ याद ही नहीं था सिवाय इसके कि उसकी पीठ में दर्द था और माथे पर भस्मी। उसके मित्रों ने मुझे धन्यवाद देकर विदा ली। घाट पर अब मैं अकेले था, सामने मुक्तिदायिनी अग्नि, गंगाजी, शिव चैतन्यता से परिपूरित मणिकर्णिका घाट। शिव की प्रत्यक्ष मुक्ति लीला का साक्षी बना मैं अपने भीतर शिवत्व को अनुभव कर रहा था। ये सब लिखते समय भी हाथों में कम्पन है और पैर बर्फ की सिल्ली जैसे ठंडे पड़ गए हैं। हां, उस यूरोपियन ग्रुप की एक सदस्या आज भी मेरी अच्छी शिष्या है जो मुझसे कभी-कभी शिव चर्चा सुनती है।
नमः परम शिवाय। क्रमशः
© Naman Krishna Bhagwat Kinker